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Date - 22nd Aug 2021
किसी भी योग्यता को वास्तविक ढांचा तभी प्राप्त होता है, जब वो साधनों से परिपूर्ण हो, और साथ ही साथ उसे बढ़ावा मिले। पूरी आवाम केवल अपने लोगो, अपनी संस्कृति को ही बढ़ावा दें। तब जाकर मुमकिन है।
उपरोक्त पंक्तियां हमे अपने यहां मौजूद माहौल तथा प्रशासन पर निशाना साध रहा है, पुराने वक्त में राजा महाराजा जो हुए, उन्होंने भी कुछ खास ध्यान नही दिया, और दूसरी तरफ हम नालायक है, जिन्हे विदेशी वैज्ञानिक पसंद है। दरसल जो भी आज खोज किया जा रहा है, या किया जा चुका है, वो हमारे वेदों, पुराणों में बहुत पहले से दर्ज है, पर हम उसे ना मानकर टेक्स्ट बुक में घिरे रहते है, और आधार किसी विदेशी वैज्ञानिक को मानते है।
एक छोटा का उदाहरण मैं अभी आपके सामने दे रहा हूं। सबसे पहले परमाणु की खोज जॉन डाल्टन ने की थी, ऐसी मान्यता है, पर आज से बहुत साल पहले महर्षि कणाद ने ये बता दिया, की हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है, और इसके सबसे छोटे कण को परमाणु कहा जाता है। लेकिन क्या हुआ, किसी ने भी इस बात पर ध्यान नही दिया, और फिर जॉन डाल्टन एक सिद्धांत लेकर आया और जाहिर कर दिया, की मैने इजाद किया है। तो सभी ने बड़ी आसानी से उस पर ध्यान दिया, ऐसा होने की वजह हमारी सोच ही है। महर्षि कणाद ने कहा:-
"क्षिति, जल, पावक, गगन और समीरा।
पंच तत्व रचित अधम शरीरा।।"
आज कल हम अपने बच्चो को वेद, पुराण आदि नही पढ़ाते, क्यूंकि हमारी धारणा यही है, की यह सब पढ़ कर तो, पंडित बनते है, मुझे तो अपने बेटे/बेटियां को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना है। रॉबर्ट जे ओपनहाइमर ने जब परमाणु बम की खोज की, तो उन्होंने अपने वक्तव्य में, कहा की वो गीता से प्रभावित है, और हमारे यहां गीता सिर्फ कसम खाने के लिए अदालत में काम आता है, और वो भी 100 में 99 प्रतिशत झूठ ही बोलते है। यह गीता का अपमान नही तो क्या है। बताओ एक धार्मिक ग्रंथ का अपमान करके कोई अपने पूर्वजों से खुद को बेहतर कैसे सोच सकता है।
आज कुछ साल पहले पता चला की ग्रहों को संख्या नव है, हमारे अथर्ववेद में पता नही कितने साल पहले से नव ग्रहों की पूजा होती है।
आजकल पश्चिमी सभ्यता का विस्तार इतना तेजी से हो रहा है, की हमारी संस्कृति जो भारतीय होने की वास्तविक पहचान है, उसे लोग भूलते जा रहे है। एक जमाना था, की लोग अपने बच्चो के नाम भगवान के नाम पर रखते थे, आज सन्नी, बॉबी, रेहान और पता नही क्या क्या। मतलब, लोगो को ऐसा लगता है, की उनके पूर्वज अच्छे नहीं थे, उनके पास उतनी अक्ल भी थी, और ये तीस मार खान पैदा हो गए है, जो वंश सुधार देंगे।
अक्सर एक बात, देखने को मिलती है, जो मुझे अजीब सी लगती है। जो लोग कभी सनातन (हिंदु) हुआ करते थे, उनकी अगली पीढ़ी किसी और धर्म को अपना कर अपने पूर्वजों के धर्म को गलत साबित करने में लगी है, अगर इनके पूर्वज गधे थे, तो ये कैसे इंसान हो सकते है। विडंबना है, पर जो है, वो है। हमारे पूर्वज लाखों में एक थे। गर्व है, हमे की हम भरत की संतान है। मित्रों तुम्हे जो मानना है, मानो पर तुम्हारा यह कहना की जो मेरे पिताजी अथवा दादी जी ने किया वो गलत था, ये बोलना उचित नही है। उस समय की परिस्थिति और आज में काफी अंतर है, न।
पहले माता पिता को मां और पिताजी कहा करते थे, जिसके उच्चारण मात्र से दिल को सुकून सा मिलता है, आज कल बच्चे अपने मां बाप को मॉम डैड कहते है, भला बताओ ये क्या इज्जत करेंगे, बुढ़ापे में। पुराने गाने इस तरह के हुआ करते थे, जैसे मानो सुनने पर राहत नसीब होती थी, एहसास होता था, भावनाएं उत्पन्न हो जाती थी। और एक आज कल के गाने है, मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, बताओ यार ? ये बोलते है, हम अपने पूर्वजों से होशियार है, बेहतर है।
भगवान ने इंसान को बनाया, उन्होंने सोचा की इन्हे अच्छे राह पर चलने, बुराई से बचाने के लिए, सात्विकता के लिए, हमेशा मैं तो इनके साथ नही रह सकता, तो इसलिए भगवान ने मां बनाई, बाद में ऐसा हुआ मां ने ही ईश्वर का स्थान ले लिया, और ईश्वर बेरोजगार हो गए। मां के चरणों में ही सभी सुख है। हमारे पूर्वज इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थे। पर आज वृद्धाश्रम नामक एक सस्था काम कर रही है, जिसमे ये नालायक, अपने मां बाप के अंतिम समय में उन्हें वहां रहने भेज देते है, घर में कुत्ते पाल लेते है, और सुबह पार्क में घूमाने ले जाते है, ये बोलते है हम आधुनिक युग के है। तुम उस मां का अनादर कर रहे हो, जो खुद भगवान की प्रतिनिधी है, जिनके चरणों में तुम्हे रहना था, उसको छोड़ के, कुत्ते पालने में जिंदगी गुजार रहे हो।
आदरणीय माता पिता के सेवा से बढ़कर इस दुनिया, और कोई भी तीर्थ धाम नही है। इस अच्छे से याद कर लो। हमारे पूर्वज ये बात अच्छी तरह से जानते थे, इसलिए उनके समय के वृद्धाश्रम जैसी कोई सुविधा नहीं थी।
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागो पाय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताए।"
इस सृष्टि में जन्मे किसी भी जीव की सबसे पहली गुरु मां होती है। इसलिए मां के सेवा में ही सर्वस्व है। मां को वृद्धा आश्रम भेज कर, साथ में घर पर कुत्ते पाल लेना फिर सभी मंदिरों तीर्थों में घूमना व्यर्थ है।
पहले शिक्षा दीक्षा गुरुकुल में हुआ करती थी, विद्यार्थी गुरु की आज्ञा का पालन करते है, उनको भगवान से भी ऊपर दर्जा दिया करते थे। और जब वो अपनी पढ़ाई पूरी करके बाहर आते थे, तो संस्कार से परिपूर्ण होते थे, इसलिए पहले के लोग संस्कारी हुआ करते थे, जितना आज चोरी, डकैती ब्लातकार हो रहा है, उस समय में नही था। गुरु, पहले भगवान से ऊपर थे, आज यह परंपरा खत्म होने के कगार पर है।
अब कुछ अंत में, मां की महता की चर्चा करते हुए, अपने पूर्वजों को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए, अपनी विचारो को विराम देते है। मां के हाथ से बना हुआ खाना तथा भगवान के मंदिर का प्रसाद दोनो में कोई खास अंतर नही होता है, क्यूंकि इन दोनो के सेवन मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है, यह सुख की चरम सीमा है, जो इसे ग्रहण करने के तुरंत बाद ही प्राप्त होती है। नसीब वाले है, वो लोग जिन्हें मां के हाथ से परोसा हुआ खाना मिलता है।
Thank you